उत्तराखंड । उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की हर्षिल घाटी में मंगलवार को एक दिल दहलाने वाली घटना ने सबको स्तब्ध कर दिया. गंगोत्री यात्रा मार्ग पर बसे धराली गांव में बादल फटने से भयंकर तबाही मच गई. खीर घाट में अचानक आए तेज सैलाब ने पूरे गांव को अपनी चपेट में ले लिया.
इस प्रलयकारी बाढ़ ने कई होटल बहा दिए, दर्जनों घर मलबे के ढेर में बदल गए, और कई लोग लापता हो गए. अब तक पांच लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है. राहत और बचाव कार्य तेजी से जारी हैं, लेकिन गांव में चारों ओर मातम और डर का माहौल है.
धराली गांव, जो समुद्र तल से करीब 9,000 फीट की ऊंचाई पर बसा है, गंगोत्री धाम की यात्रा करने वालों के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. यह गांव अपनी मनोरम प्राकृतिक सुंदरता और हरियाली के लिए पर्यटकों के बीच खासा लोकप्रिय है. अपनी सुंदरता के अलावा ये पूरी घाटी सेब की खेती के लिए भी विश्व भर में मशहूर है. यहां के गोल्डन और रेड डिलीशियस सेब देश-विदेश के बाजारों में अपनी खास पहचान रखते हैं.
सेब का यह कारोबार गांव के कई परिवारों की आजीविका का मुख्य स्रोत है. इस खेती ने न केवल स्थानीय लोगों को आर्थिक रूप से मजबूत किया, बल्कि इलाके को समृद्धि की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया. मगर, इस बाढ़ ने सेब के कई बागानों को भी भारी नुकसान पहुंचाया है. कई किसानों की मेहनत पानी और मलबे में बह गई.
गरीबी से समृद्धि तक का सफर👇
धराली और उसके आसपास के गांवों ने वह दौर भी देखा है जब लोग दो वक्त की रोटी के लिए जूझते थे. 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद इस सीमावर्ती इलाके में व्यापारिक रास्ते बंद हो गए और लोगों की आजीविका पर सीधा असर पड़ा. लेकिन वक्त ने करवट ली और इन पहाड़ियों की किस्मत सेब के बागों ने बदली. स्थानीय लोगों ने ऊबड़-खाबड़ जमीन पर मेहनत से सेब उगाना शुरू किया. देखते ही देखते, हर्षिल घाटी के आठ गांवों में सेब की खेती लोगों की मुख्य आजीविका बन गई.

आज इस क्षेत्र में 10,000 हेक्टेयर में सेब के बाग हैं, जहां हर साल लगभग 20,500 मीट्रिक टन सेब पैदा होता है. गोल्डन और रेड डिलीशियस जैसी उम्दा किस्में देश-विदेश के बाजारों में खूब बिकती हैं. हर साल लगभग 1.5 लाख पेटियां बाजार में जाती हैं और करीब 10 करोड़ रुपये का कारोबार होता है. यहां एक आम किसान भी साल में 5 लाख रुपये तक कमा लेता है, जबकि कुछ परिवार ऐसे भी हैं जिनकी कमाई 20 से 25 लाख रुपये सालाना तक पहुंच जाती है.

धराली के पुराने बाशिंदे बताते हैं कि उनके पुरखे भेड़ पालन और ऊनी कपड़ों के व्यापार से अपना गुजारा करते थे. 1962 से पहले तिब्बत के ताकलाकोट में सालाना बाजार लगता था. तिब्बती व्यापारी यहां सोना, चांदी, मूंगा, पश्मीना ऊन और चैंर7 गाय लेकर आते थे, जबकि यहां के ग्रामीण मंडुआ, सत्तू, लाल चावल, गुड़ और ऊनी वस्त्र ले जाते थे. लेकिन भारत-चीन युद्ध के बाद यह पूरा व्यापार बंद हो गया. इससे इलाके की आर्थिक रीढ़ टूट गई और लोगों को भीषण गरीबी का सामना करना पड़ा.
भारतीय सेना ने बदल दी पूरी तस्वीर👇
इस घाटी में 1978 में भी एक भयानक बाढ़ आई थी, जिसने लोगों को आर्थिक रूप से और ज्यादा तोड़ दिया. उस समय बहुत कम लोग सेब उगाते थे और वह भी सिर्फ खुद के खाने के लिए. दैनिक भास्कर की एक खबर के मुताबिक, इसी दौरान झाला गांव के एक किसान के सेब भारतीय सेना ने 10 हजार रुपये में खरीद लिए. यह सौदा इलाके के लिए एक बड़ी खबर बन गई क्योंकि उस समय 10 हजार रुपये की कीमत बहुत ज्यादा मानी जाती थी.
लोगों ने देखा कि सेब की खेती में कितना दम है और उन्होंने इस दिशा में मेहनत शुरू कर दी. आज यही इलाका उत्तराखंड के सबसे समृद्ध क्षेत्रों में गिना जाता है. यहां के कई परिवार अब अपने घरों में सेब चिप्स बनाने की मशीनें लगा चुके हैं. बच्चे उत्तरकाशी के अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं और पर्यटक भी यहां आकर सीधा बाग से सेब खरीदते हैं.