होली का एक रूप ऐसा भी, यहाँ इस दिन ‘दामाद जी’ गधे की करते हैं सवारी, निकलता है जुलूस

मुंबई। देश में होली त्योहार बड़े धूम धाम से मनाया जाता है.इसके साथ ही हर जगहों पर होली अलग -अलग तरह से खेले जाते हैं. वहीं महाराष्ट्र के बीड जिले में दशकों से होली यानी रंग पंचमी के त्योहार एक अलग तरीके से मनाया जाता है. यहाँ पर एक अनोखी परंपरा चली आ रही है. इस परंपरा के तहत ‘चुने गए दामाद’ को गधे पर बिठाकर गांव का चक्कर लगवाया जाता है. दामाद को बाद में सोने की अंगूठी और नए कपड़े भी दिए जाते हैं. लेकिन इस वर्ष होली में कोरोना महामारी की वजह से गांव में इस परंपरा का आयोजन नहीं किया जा रहा है.

ये परम्परा बीड की केज तहसील के विडा येवता गांव में करीब 80 साल से चली आ रही है. गांव वालों के मुताबिक दामाद को गधे पर बिठाकर गांव का चक्कर लगवाने के बाद उसे उसकी पसंद के कपड़े दिए जाते हैं. गधे पर दामाद की सवारी देखने के लिए आसपास के क्षेत्रों से भी लोग यहां आते हैं. गधे पर सवारी गांव का चक्कर काटने के बाद सुबह 11 बजे गांव के मंदिर पर खत्म होती है.

इसके बाद दामाद के ससुर उसका मुंह मीठा कराते हैं और सोने की अंगूठी भेंट करते हैं. फिर उसे नए कपड़े दिए जाते हैं. इस बार कोरोना को देखते हुए एहतियात के तौर पर कई तरह की बंदिशें लागू है. होली पर महाराष्ट्र में हर जगह विशेष सतर्कता बरती जा रही है. इसलिए इस साल होली पर गांव वालों ने इस परंपरा को न मनाने का फैसला किया है.

ये परंपरा कैसे शुरू हुई-
गांव में रहने वाले सुमित सिंह देशमुख ने बताया कि उनके परदादा अनंतराव ठाकुर देशमुख की ओर से आठ दशक पहले ये परंपरा शुरू की गई. सुमित सिंह के मुताबिक उनके परदादा के दामाद होली के दिन रंग खेलने से मना कर रहे थे, तब परदादा ने गांववालों के साथ मिलकर गधे का इंतजाम किया. गधे को फूलों से सजा कर उस पर दामाद को बिठा कर तीन घंटे तक गांव में बैंड बाजे के साथ जुलूस निकाला. बाद में गांव के मंदिर में जाकर दामाद का सत्कार हुआ और उसे सोने की अंगूठी और नए कपड़े भेंट किए गए. इस दौरान गांव वाले पूरे उल्लास के साथ होली खेलते रहे. तब से ये परंपरा लगातार चली आ रही है.

ऐसे चुना जाता है दामाद-
गांव के ही रहने वाले धनराज पवार के मुताबिक करीब 180 दामाद हैं जो गांव में ही अब बस गए हैं और यहीं काम-धंधा करते हैं. करीब 11,000 की आबादी वाले इस गांव में दामादों को शॉर्टलिस्ट करने का काम होली के कई दिन पहले शुरू हो जाता है. पहले 10 दामादों की लिस्ट तैयार होती है फिर उसमें से एक दामाद को चुना जाता है. कई दामाद चुने जाने पर ऐसा करने के लिए मना कर देते हैं. तकरार भी होती है. फिर गांव के बड़े बुजुर्ग और दोस्त उन्हें समझाते हैं. कई बार तो होली से पहले कुछ दामाद गांव छोड़कर दूर जाकर कहीं छुप गए. उन्हें ढूंढ निकाला गया और स्पेशल गाड़ी भेजकर वापस गांव लाया गया.

एक दामाद ने बताया अपना अनुभव: 42 साल के दत्तात्रेय गायकवाड़ पिछले साल होली पर गधे पर बिठा जुलूस निकाले जाने का अनुभव झेल चुके हैं. उन्होंने आजतक को बताया, ‘मुझे पहले ही भनक लग गई थी कि मुझे चुना गया है, इसलिए मैं भाग छिप रहा था. विडा येवता गांव से मेरा पैतृक गांव मसाजोग करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर है. मसाजोग के बस स्टैंड से मैं कही दूर जाने की फिराक में था. वहीं मुझे विडा येवता गांव की टोली ने पकड़ लिया. मुझे गधे पर बैठने से डर लग रहा था. लेकिन फिर गांव वालों और रिश्तेदारों ने समझाया कि ये एक परंपरा है. हर दामाद को गधे पर बैठना ही होता है. इस बार तुम्हारा नंबर लगा है. हालांकि गधे पर सवार होने के बाद मेरा सारा डर दूर हो गया था. दो-तीन घंटे मुझे घुमाया गया, रंग लगाया गया, गालियां भी सुनने को मिलीं, लेकिन सब हंसी मजाक के माहौल में हो रहा था.’

हालांकि दत्तात्रेय गायकवाड़ को एक बात का मलाल है कि उनके ससुर ने उन्हें सोने की अंगूठी नहीं दी, हां नए कपड़े और खाने को ढेर सारी मिठाइयां जरूर मिली थीं. इस परंपरा से सौहार्द भी जुड़ा हुआ है. यहां किसी विशेष धर्म से ही नहीं बल्कि सभी धर्मों के लोग इसे उत्साह के साथ मनाते आए हैं. इस बार कोरोना के खतरे की वजह से आयोजन रद्द होने की वजह से गांव के लोग मायूस जरूर हैं. लेकिन उन्हें भरोसा है कि अगले साल तक सब ठीक हो जाएगा और इस परंपरा को फिर दोगुने जोश के साथ मनाया जाएगा.